बाबू रेवती रमण दास की मानें तो शहीद सुरेंद्र सिंह और उनके परिवार के एक सदस्य को फांसी दी गई थी। उनकी समाधिस्थल आज भी आर्यनगर तिराहे पर मौजूद है। उनका दावा है कि इन्हीं शहीदों की ओर स्थापित आर्यनगर के 11 शिवलिंग मूर्ति में से एक शिवलिंग की पिंडी भी समाधिस्थल के बगल में है।
गोरखपुर के धर्मशाला बाजार से लेकर शहीद बंधू सिंह पार्क तक प्रस्तावित विरासत गलियारा प्राचीन काल के मंदिरों और आजादी के मतवालों की शहादत के चिह्न भी समेटे हुए है। आर्यनगर चौराहे पर संचालित मंडी के जर्जर भवन के भीतर समाधि स्थल और शिव मंदिर की पिंडी मौजूद है। हालांकि, शहर के लोग इन चिह्नों से दस्तावेजीकरण नहीं होने से अनजान हैं।
1857 के पहले भी देश के मतवालों को अंग्रेजों ने फांसी दी थी। इन्हीं में से एक थे अमर शहीद सुरेंद्र सिंह। शहर के बाबू पुरुषोत्तम दास रईस के बेटे बाबू रेवती रमण दास की मानें तो शहीद सुरेंद्र सिंह और उनके साथ परिवार के दो सदस्यों को भी फांसी दी गई थी।
उनकी समाधिस्थल आज भी आर्यनगर तिराहे पर मौजूद है। उनका दावा है कि इन्हीं शहीदों की ओर स्थापित आर्यनगर के 11 शिवलिंग मूर्ति में से एक शिवलिंग की पिंडी भी समाधिस्थल के बगल में है।
सजा भी तय करते थे अंग्रेज कलेक्टर
शहर को करीब से जानने वाले प्रो. डॉ. कृष्ण कुमार पांडेय ने बताया कि अवध के नवाब की मदद के बदले उन्होंने गोरखपुर से बहराइच तक का हिस्सा अंग्रेजों को दिया था। 1801 में गोरखपुर में पहले कलेक्टर मेजर राउट लेज थे। इनके अलावा एक कप्तान भी तैनात किए गए थे। उन्होंने बताया कि तत्कालीन समय में कलेक्टर का काम ही लगान इकट्ठा करने के साथ मजिस्ट्रेट की भूमिका में भी रहती थी। ये सजा भी देते थे।
1857 के आसपास 11 शिव मंदिरों की स्थापना
गोरखपुर का सरकारी इतिहास अंग्रेजी काल में 1801 से शुरू हुआ था। इसी के बाद अंग्रेज शासन करते हुए चुंगी और लगान के साथ अपना शासन करते चले गए। बाबू रेवती रमण दास ने बताया कि उन्होंने अपने पूर्वजों से सुना था कि आर्यनगर में सुरेंद्र सिंह स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हुआ करते थे। चूंकि, 1857 के पहले अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ने की योजना भारतीयों ने गुपचुप तरीके से शुरू कर दी थी।
इसी दौरान उनके द्वारा आर्यनगर के आस-पास कुल 11 शिव मंदिरों की स्थापना की गई थी, जो एक ही आकार की पिंडी और घेरानुमा थीं। आज भी ये शिवपिंडी आर्यनगर से लेकर आस-पास के इलाकों में देखे जा सकते हैं और भक्त इनकी श्रद्धा से पूजा अर्चन भी करते हैं।
सब्जीमंडी में दब गए समाधिस्थल-मंदिर
उन्होंने बताया कि मुखबिरी के बाद अंग्रेजों द्वारा इनकी गिरफ्तारी की गई और आर्यनगर चौराहे पर सुरेंद्र सिंह और परिवार के एक सदस्य को फांसी दी गई थी। यह बात 1857 के पहले की है। जिस जमीन पर उन्हें फांसी दी गई, उस आराजी 109 की जमीन को बाद में सरकार ने जमींदारी में दे दी। वहां पर अंग्रेजों के समय से ही सब्जी मंडी लगने लगी। इसी मंडी और निर्माण में इस समाधिस्थल और शिव मंदिर का अतीत दबकर रह गया।
उन्होंने सरकार से मांग की कि परिसर के समाधिस्थल और शिवमंदिर की पुरातत्व विभाग से जांच कराई जाए। इससे मंदिर और समाधि स्थल के अस्तित्व की कहानी जगजाहिर हो जाएगी। यहां शिव मंदिर की पिंडी खुद से बाहर आने की बात भी पूर्वजों ने बताई थी। इसी के बाद सुरेंद्र सिंह ने आस-पास 11 शिवमंदिरों की स्थापना करवाई थी। उन्होंने चौराहे का नाम शिवालय चौराहा करने की मांग की।
आसपास के शिव मंदिर की कहानी
अलीनगर के अनंत अग्रवाल और राजकुमार अग्रवाल ने बताया कि उनकी उम्र लगभग 65 से 70 वर्ष के आस-पास है। उनके जन्म लेने से पहले परिवार के लोग घर के आस-पास के शिव मंदिर के बारे में बताते हैं। पूछने पर बताया कि परिसर में मंडी थी। लंबे समय से लोग अपना व्यापार करते हैं, लेकिन इस परिसर के अंदर शिवमंदिर है, यह बात आजतक सामने नहीं आई। बताया, कि इस परिसर में आजादी के पहले मंडी लगने की बात पूर्वज बताते थे।
इसलिए शासन ने इसे बनाया विरासत गलियारा
1905 में कलेक्टर सिम सन ने धर्मशाला पर सिमसिम मार्केट खोला था। इसी के पीछे सिमसिम धर्मशाला बनी थी, जिसे बाद में धर्मशाला बाजार कहा जाने लगा। इसी चौराहे पर पहले हेड चुंगी थी, जहां आज भी मेयर का कैंप कार्यालय बना हुआ है। इसी हेड चुंगी पर भारतीय अपनी मेहनत की कमाई से लगान चुकाते थे।
इसके आगे दक्षिणमुखी हनुमान जी का मंदिर, जटाशंटर गुरूद्वारा और जटाशंटर पोखरा, आर्य नगर में ठाकुर मदन मोहन और ठाकुर नटवर लाल (ठाकुर जी) का मंदिर, राधे कृष्ण जी का मंदिर, आर्यनगर से अग्रवाल भवन के पीछे डुगरी लाल जी का मंदिर,
अग्रवाल भवन, मुफ्तीपुर में राधाकृष्ण मंदिर, उर्दू बाजार में भी प्राचीनतम राधाकृष्ण मंदिर, प्राचीनतम कालीबाड़ी मंदिर, इसी क्षेत्र में बाल संरक्षण गृह, बड़ी मस्जिद के बाद घंटाघर और शहीद बंधू सिंह पार्क विरासत गलियारा का हिस्सा है। इन्हीं प्राचीन विरासतों की वजह से इस गलियारे को एक अमर पहचान देने के लिए विरासत गलियारा का नाम दे दिया गया।