अखिलेश के लिए “गड्ढा” साबित हो सकता है जयंत से गठबंधन!

  • रालोद मुखिया जयंत को 38 सीटें देने से क्षेत्र के कई सपाई क्षत्रप नाराज
  • पश्चिम यूपी में कभी भी बगावत का स्वरूप ले सकती है सपाइयों की नाराजगी

लखनऊ। समाजवादी पार्टी (सपा) और राष्ट्र्रीय लोकदल (रालोद) का आगामी विधानसभा के लिए चुनावी गठबंधन हो गया है। सपा मुखिया अखिलेश यादव और रालोद मुखिया जयंत चौधरी ने आगामी विधानसभा चुनाव मिल कर लड़ने का ऐलान भी कर चुके हैं। जिसके अनुसार पश्चिम उत्तर प्रदेश की 38 सीटों पर जयंत चौधरी अपने प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में उतारेंगे। अखिलेश के साथ जयंत के साथ अखिलेश का यह गठबंधन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सपा के लिए गड्ढा साबित हो सकता है।

दरअसल सपा मुखिया के इस फैसले से सपा के ताकतवर और जिताऊ उम्मीदवार सकते में हैं। इन उम्मीदवारों में कई ऐसे हैं, जिन्हें अखिलेश यादव ने चुनाव लड़ाने का भरोसा दिया था। ऐसे में अब इन उम्मीदवारों के चुनाव लड़ने की उम्मीदे खत्म हो रही है। ऐसे में पश्चिम यूपी में मुजफ्फरनगर, बुलन्दशहर, सहारनपुर, रामपुर के तमाम सपा नेताओं अखिलेश के फैसले से खफा होकर अब सपा के असंतुष्ट नेता भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) तथा कांग्रेस में जाने का जुगाड़ खोज रहा है। कहा जा रहा है कि सपा नेताओं का यह असंतोष अखिलेश -जयंत दोनों को ही नुकसान पहुंचाएगा। खासकर अखिलेश के लिए।

राजनीतिक विश्लेषक भी पश्चिम यूपी में सपा नेताओं के इस असंतोष को लेकर हैरत में हैं। इसकी वजह है। लगभग दो दशक बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीति में किसान के मिल रहे साथ से उत्साहित होकर रालोद ने अपनी शर्तों पर सपा से चुनावी समझौता किया। रालोद और सपा के इस चुनावी समझौते से पश्चिम यूपी में रालोद और सपा को चुनावी लाभ दिख रहा था। जिसके आधार पर अखिलेश यादव और जयंत चौधरी ने “यूपी बदलो” का नारा बुलंद किया। राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि अखिलेश यादव के शासन में मुजफ्फरनगर में हुए दंगे के दुष्परिणामों को लेकर सपा मुखिया अखिलेश यादव अभी भी भयभीत हैं। अखिलेश नहीं चाहते हैं कि इन चुनावों में सपा के उम्मीदवारों को इसका दुष्परिणाम भोगना पड़े, इसीलिए विधानसभा चुनावों के ठीक पहले सपा मुखिया ने एक तरह से पश्चिमी उत्तर प्रदेश की गन्ना पट्टी रालोद प्रमुख जयंत चौधरी के हवाले कर दी। अब रालोद की दिक्कत यह है कि उसके पास जिताऊ उम्मीदवारों का टोटा है। इसकी वजह रालोद का कमजोर संगठन है। इसके बाद भी रालोद के प्रति किसानों के झुकाव को देखते हुए अन्य दलों के तमाम समर्थ नेता रालोद से टिकट पाने का जुगाड़ लगा रहे हैं। ऐसे समर्थ नेताओं को टिकट मिलने से सपा को फायदा नहीं होगा।  

पश्चिम यूपी में अखिलेश यादव के फैसले से असंतुष्ट नेताओं का कहना है कि, सपा और रालोद के बीच जो चुनावी गठबंधन हुआ है, उसके तहत सहारनपुर में जहां रालोद का कोई प्रभाव नहीं है, वहां देवबंद और रामपुर मनिहारान सुरक्षित सीट रालोद को दी गई है। देवबंद में तो रालोद को पूर्व विधायक ठाकुर वीरेंद्र सिंह के रूप में उपर्युक्त उम्मीदवार मिल गया है लेकिन रामपुर मनिहारान के टिकट को लेकर जुगाड़बाजी हो रही है। इसी प्रकार शामली जिले में भी रालोद को शामली और थानाभवन दो सीट दी गई हैं। मुजफ्फरनगर जिले में छह विधानसभा सीटें हैं। चरथावल को छोड़कर अन्य पांच सीटों पर रालोद अपने उम्मीदवार उतारेगा। मुजफ्फरनगर शहर और खतौली सीट पर सपा के नेता चुनाव लड़ सकते हैं। मुजफ्फरनगर की शहरी सीट पार पूर्वमंत्री चितरंजन स्वरूप के बेटे गौरव स्वरूप चुनाव लड़ सकते हैं। खतौली सीट से पूर्व मंत्री राजपाल सैनी रालोद टिकट पर चुनाव लड़ेंगे। मीरापुर सीट पर सपा मुखिया के घोषित उम्मीदवार चंदन सिंह चौहान के चुनाव लड़ने की उम्मीद थी लेकिन अब कादिर राणा के इस सीट से चुनाव लड़ने की चर्चाएं हो रही हैं। इसके चलते चंदन सिंह खफा हैं।    

पश्चिम यूपी के कई जिलों में इसी तरह से सपा के कई नेता खफा हैं। ऐसे में अब यह सवाल पूछा जा रहा है कि क्या इस गठबंधन को बड़ी कामयाबी मिलेगी। मेरठ के वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र सिंह कहते हैं कि गठबंधन तभी बड़ी कामयाबी हासिल कर पाएगा, जब उसे सभी वर्गों का समर्थन मिले, और नाराजगी भूल कर सपा और रालोद के नेता कार्यकर्ता मिलकर काम करें। अभी किसान आंदोलन, महंगाई ,गन्ना किसानों का भुगतान न होने जैसे तमाम मुद्दों के बल पर सपा रालोद – गठबंधन भाजपा के इस किले को भेदना चाहता है लेकिन यह आसान नहीं है। उधर, बसपा  को जो बहुत कमजोर समझ रहे हैं वे भी जमीनी हकीकत से अनजान हैं। बसपा ने सपा के नाराज नेताओं को अपनी तरफ लाने के लिए दरवाजे खोल दिए हैं। रालोद को भी सतर्क रहने की जरूरत है। वर्ष 2002 के विधानसभा चुनाव में रालोद ने 15 सीटें पाई थीं। इसके बाद से वह दहाई का आंकड़ा पार नहीं कर सकी। वर्ष 2017 विधानसभा चुनावों में उसे सिर्फ एक सीट मिली थी। राजेंद्र सिंह कहते हैं कि पश्चिम यूपी के तकरीबन 71 सीटों में भाजपा को 51 सीटों पर जीत मिली थी। ऐसे में इस बार इस इलाके में चुनावी लड़ाई और भी रोचक हो गई है क्योंकि पश्चिम उत्तर प्रदेश में चुनाव किसान आंदोलन के नाम पर लड़ा जा रहा है। इस संघर्ष में सपा नेताओं की अंतर्कलह सपा रालोद गठबंधन को नुकसान पहुंचाएगी।

अखिलेश के लिए “गड्ढा” साबित हो सकता है जयंत से गठबंधन!

  • रालोद मुखिया जयंत को 38 सीटें देने से क्षेत्र के कई सपाई क्षत्रप नाराज
  • पश्चिम यूपी में कभी भी बगावत का स्वरूप ले सकती है सपाइयों की नाराजगी

लखनऊ, 27 दिसंबर 2021 :
समाजवादी पार्टी (सपा) और राष्ट्र्रीय लोकदल (रालोद) का आगामी विधानसभा के लिए चुनावी गठबंधन हो गया है। सपा मुखिया अखिलेश यादव और रालोद मुखिया जयंत चौधरी ने आगामी विधानसभा चुनाव मिल कर लड़ने का ऐलान भी कर चुके हैं। जिसके अनुसार पश्चिम उत्तर प्रदेश की 38 सीटों पर जयंत चौधरी अपने प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में उतारेंगे। अखिलेश के साथ जयंत के साथ अखिलेश का यह गठबंधन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सपा के लिए गड्ढा साबित हो सकता है।

दरअसल सपा मुखिया के इस फैसले से सपा के ताकतवर और जिताऊ उम्मीदवार सकते में हैं। इन उम्मीदवारों में कई ऐसे हैं, जिन्हें अखिलेश यादव ने चुनाव लड़ाने का भरोसा दिया था। ऐसे में अब इन उम्मीदवारों के चुनाव लड़ने की उम्मीदे खत्म हो रही है। ऐसे में पश्चिम यूपी में मुजफ्फरनगर, बुलन्दशहर, सहारनपुर, रामपुर के तमाम सपा नेताओं अखिलेश के फैसले से खफा होकर अब सपा के असंतुष्ट नेता भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) तथा कांग्रेस में जाने का जुगाड़ खोज रहा है। कहा जा रहा है कि सपा नेताओं का यह असंतोष अखिलेश -जयंत दोनों को ही नुकसान पहुंचाएगा। खासकर अखिलेश के लिए।

राजनीतिक विश्लेषक भी पश्चिम यूपी में सपा नेताओं के इस असंतोष को लेकर हैरत में हैं। इसकी वजह है। लगभग दो दशक बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीति में किसान के मिल रहे साथ से उत्साहित होकर रालोद ने अपनी शर्तों पर सपा से चुनावी समझौता किया। रालोद और सपा के इस चुनावी समझौते से पश्चिम यूपी में रालोद और सपा को चुनावी लाभ दिख रहा था। जिसके आधार पर अखिलेश यादव और जयंत चौधरी ने “यूपी बदलो” का नारा बुलंद किया। राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि अखिलेश यादव के शासन में मुजफ्फरनगर में हुए दंगे के दुष्परिणामों को लेकर सपा मुखिया अखिलेश यादव अभी भी भयभीत हैं। अखिलेश नहीं चाहते हैं कि इन चुनावों में सपा के उम्मीदवारों को इसका दुष्परिणाम भोगना पड़े, इसीलिए विधानसभा चुनावों के ठीक पहले सपा मुखिया ने एक तरह से पश्चिमी उत्तर प्रदेश की गन्ना पट्टी रालोद प्रमुख जयंत चौधरी के हवाले कर दी। अब रालोद की दिक्कत यह है कि उसके पास जिताऊ उम्मीदवारों का टोटा है। इसकी वजह रालोद का कमजोर संगठन है। इसके बाद भी रालोद के प्रति किसानों के झुकाव को देखते हुए अन्य दलों के तमाम समर्थ नेता रालोद से टिकट पाने का जुगाड़ लगा रहे हैं। ऐसे समर्थ नेताओं को टिकट मिलने से सपा को फायदा नहीं होगा।  

पश्चिम यूपी में अखिलेश यादव के फैसले से असंतुष्ट नेताओं का कहना है कि, सपा और रालोद के बीच जो चुनावी गठबंधन हुआ है, उसके तहत सहारनपुर में जहां रालोद का कोई प्रभाव नहीं है, वहां देवबंद और रामपुर मनिहारान सुरक्षित सीट रालोद को दी गई है। देवबंद में तो रालोद को पूर्व विधायक ठाकुर वीरेंद्र सिंह के रूप में उपर्युक्त उम्मीदवार मिल गया है लेकिन रामपुर मनिहारान के टिकट को लेकर जुगाड़बाजी हो रही है। इसी प्रकार शामली जिले में भी रालोद को शामली और थानाभवन दो सीट दी गई हैं। मुजफ्फरनगर जिले में छह विधानसभा सीटें हैं। चरथावल को छोड़कर अन्य पांच सीटों पर रालोद अपने उम्मीदवार उतारेगा। मुजफ्फरनगर शहर और खतौली सीट पर सपा के नेता चुनाव लड़ सकते हैं। मुजफ्फरनगर की शहरी सीट पार पूर्वमंत्री चितरंजन स्वरूप के बेटे गौरव स्वरूप चुनाव लड़ सकते हैं। खतौली सीट से पूर्व मंत्री राजपाल सैनी रालोद टिकट पर चुनाव लड़ेंगे। मीरापुर सीट पर सपा मुखिया के घोषित उम्मीदवार चंदन सिंह चौहान के चुनाव लड़ने की उम्मीद थी लेकिन अब कादिर राणा के इस सीट से चुनाव लड़ने की चर्चाएं हो रही हैं। इसके चलते चंदन सिंह खफा हैं।    

पश्चिम यूपी के कई जिलों में इसी तरह से सपा के कई नेता खफा हैं। ऐसे में अब यह सवाल पूछा जा रहा है कि क्या इस गठबंधन को बड़ी कामयाबी मिलेगी। मेरठ के वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र सिंह कहते हैं कि गठबंधन तभी बड़ी कामयाबी हासिल कर पाएगा, जब उसे सभी वर्गों का समर्थन मिले, और नाराजगी भूल कर सपा और रालोद के नेता कार्यकर्ता मिलकर काम करें। अभी किसान आंदोलन, महंगाई ,गन्ना किसानों का भुगतान न होने जैसे तमाम मुद्दों के बल पर सपा रालोद – गठबंधन भाजपा के इस किले को भेदना चाहता है लेकिन यह आसान नहीं है। उधर, बसपा  को जो बहुत कमजोर समझ रहे हैं वे भी जमीनी हकीकत से अनजान हैं। बसपा ने सपा के नाराज नेताओं को अपनी तरफ लाने के लिए दरवाजे खोल दिए हैं। रालोद को भी सतर्क रहने की जरूरत है। वर्ष 2002 के विधानसभा चुनाव में रालोद ने 15 सीटें पाई थीं। इसके बाद से वह दहाई का आंकड़ा पार नहीं कर सकी। वर्ष 2017 विधानसभा चुनावों में उसे सिर्फ एक सीट मिली थी। राजेंद्र सिंह कहते हैं कि पश्चिम यूपी के तकरीबन 71 सीटों में भाजपा को 51 सीटों पर जीत मिली थी। ऐसे में इस बार इस इलाके में चुनावी लड़ाई और भी रोचक हो गई है क्योंकि पश्चिम उत्तर प्रदेश में चुनाव किसान आंदोलन के नाम पर लड़ा जा रहा है। इस संघर्ष में सपा नेताओं की अंतर्कलह सपा रालोद गठबंधन को नुकसान पहुंचाएगी।