दक्षिण एशिया की भू-राजनीति में उस समय नया मोड़ आया जब बांग्लादेश की अंतरिम सरकार ने अवामी लीग की कथित गतिविधियों का मुद्दा उठाकर भारत को अपनी घरेलू राजनीति में घसीटने की कोशिश की, वहीं नेपाल ने एक बार फिर लिपुलेख पर दावा ठोक कर भारत-चीन व्यापारिक समझौते पर सवाल खड़े किए। दोनों ही मामलों में भारत ने तपाक से करारा जवाब दिया। बांग्लादेश को यह याद दिलाया गया कि भारत की ज़मीन किसी अन्य देश की राजनीति का अड्डा नहीं बन सकती। साथ ही नेपाल को यह स्पष्ट किया गया कि लिपुलेख से व्यापार 1954 से चलता आ रहा है और ऐतिहासिक तथ्यों के बिना दावे टिकाऊ नहीं हो सकते।
देखा जाये तो भारत के इस करारे जवाब से कई स्तरों पर संदेश गया है। जैसे कि भारत पड़ोसियों के साथ सौहार्द्र चाहता है, लेकिन राष्ट्रीय हित सर्वोपरि हैं। इसके अलावा बांग्लादेश की अंतरिम सरकार को संकेत गया है कि भारत उसकी आंतरिक सत्ता संघर्ष का हिस्सा नहीं बनेगा, बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया बहाल करने पर नज़र रखेगा। नेपाल और चीन को संदेश गया है कि भारत अपनी रणनीतिक सीमाओं और व्यापार मार्गों पर किसी भी दबाव को स्वीकार नहीं करेगा।
भारत ने दिखा दिया है कि वह पड़ोसियों से मित्रता चाहता है, लेकिन मित्रता का अर्थ समर्पण नहीं है। ढाका और काठमांडू दोनों को यह समझना होगा कि भारत से संवाद तो संभव है, लेकिन दबाव या अनुचित दावे स्वीकार नहीं किये जायेंगे। यह नया भारत है जो सुनता है, पर ज़रूरत पड़ने पर सख़्त लहज़े में जवाब भी देता है।
जहां तक बांग्लादेश प्रकरण की बात है तो आपको बता दें कि वहां की अंतरिम सरकार ने भारत से मांग की थी कि वह निषिद्ध घोषित बांग्लादेश अवामी लीग के कथित दफ्तरों और गतिविधियों को दिल्ली व कोलकाता में बंद कराए। बांग्लादेश सरकार ने इसे “ढाका और उसके लोगों के खिलाफ सीधा अपमान” बताया था। इस पर भारत का जवाब बेहद साफ़ था कि हमारी भूमि का उपयोग किसी अन्य देश के खिलाफ राजनीतिक गतिविधियों के लिए नहीं किया जा सकता। साथ ही भारत ने ढाका को यह भी याद दिलाया कि वह चाहता है कि बांग्लादेश में स्वतंत्र, निष्पक्ष और समावेशी चुनाव शीघ्र हों। भारत ने बांग्लादेश को स्पष्ट कर दिया कि उसकी आंतरिक राजनीतिक खींचतान में भारत को घसीटना “ग़लत” है। साथ ही भारत ने अप्रत्यक्ष रूप से यूनुस सरकार पर यह दबाव भी बनाया कि वह लोकतांत्रिक प्रक्रिया को जल्द आगे बढ़ाए।
वहीं नेपाल प्रकरण की बात करें तो आपको बता दें कि भारत और चीन के बीच लिपुलेख दर्रे के जरिए व्यापार पुनः आरंभ करने पर नेपाल ने आपत्ति जताई। नेपाल का दावा है कि लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधुरा उसकी भूमि हैं और इसे 1816 की सुगौली संधि से प्रमाणित किया गया है। इस पर भारत ने जवाब दिया कि लिपुलेख दर्रे से भारत-चीन व्यापार 1954 से जारी है, जिसे कोविड और अन्य कारणों से रोका गया था। अब इसे फिर शुरू किया गया है। भारत ने कहा कि नेपाल के दावे इतिहास और तथ्यों पर आधारित नहीं हैं। भारत ने कहा है कि किसी भी तरह का “एकतरफा कृत्रिम विस्तार” अस्वीकार्य है। देखा जाये तो यह प्रतिक्रिया नेपाल को सीधा संकेत है कि भारत अपनी रणनीतिक और ऐतिहासिक स्थिति से पीछे नहीं हटेगा और व्यापारिक हितों को किसी तरह के दबाव में नहीं छोड़ेगा।
बहरहाल, इन दोनों घटनाओं का व्यापक असर दक्षिण एशिया की राजनीति पर पड़ना निश्चित है क्योंकि दोनों मोर्चों पर भारत ने बिना जरा भी झुकाव दिखाए “सख़्त लेकिन कूटनीतिक” भाषा का इस्तेमाल किया। इससे यह संदेश गया कि भारत अपने पड़ोसियों की अनुचित मांगों के सामने पीछे नहीं झुकेगा। इन प्रतिक्रियाओं से यह भी संकेत मिलता है कि भारत मित्रता की नीति पर कायम है, लेकिन राष्ट्रीय हित और रणनीतिक क्षेत्रीय सुरक्षा सर्वोपरि है। यह घटनाक्रम दक्षिण एशिया में संदेश देता है कि भारत न केवल अपने हितों की रक्षा करने में दृढ़ है, बल्कि क्षेत्रीय राजनीति में एक निर्णायक शक्ति के रूप में उभर चुका है।