जब हम भविष्य के निर्णय करते हैं तो इतिहास में झांकना भी जरूरी हो जाता है। आज भूधंसाव को लेकर जोशीमठ क्षेत्र की दशा-दिशा तय करने की चुनौती सामने है। ऐसे में इतिहास में झांककर देखा जाए तो यह पूरा क्षेत्र वर्ष 1970 में उस समय की सबसे बड़ी त्रासदी झेल चुका है। इस त्रासदी के प्रभाव व कारण को उत्तराखंड अंतरिक्ष उपयोग केंद्र (यूसैक) के निदेशक प्रो. एमपीएस बिष्ट अपनी पीएचडी में बयां कर चुके हैं।
वर्ष 1985 से 1991 के बीच पूरी की गई पीएचडी में आज भूधंसाव के रूप में खड़े सवालों के जवाब भी मिल जाते हैं। इन दिनों भी प्रो. एमपीएस बिष्ट जोशीमठ क्षेत्र में सक्रिय हैं और भूधंसाव की ताजा स्थिति को भूविज्ञान के विभिन्न पहलुओं से देख रहे हैं। प्रो. एमपीएस बिष्ट की पीएचडी के तथ्यों के मुताबिक, यहां की जमीन की संवेदनशीलता का संबंध क्षेत्र के पर्वतीय अंतर (ओरोग्राफिक डिफ्रेंस) से है। यहां लेसर हिमालय की पहाड़ियों के बाद अचानक से 1800 से 2200 मीटर ऊंचाई की पर्वत शृंखलाएं पाई जाती हैं। जिसके चलते दक्षिणी छोर में भारी वर्षा होती है। जोशीमठ क्षेत्र इसी दक्षिणी छोर में आता है।
संभवतः इन्हीं कारणों के चलते वर्ष 1970 में भी सात दिन तक लगातार भारी से भारी वर्षा रिकार्ड की गई और 20-21 जुलाई 1970 को जोशीमठ क्षेत्र में उस समय की सबसे बड़ी आपदा घटित हुई। तब जोशीमठ के पूर्व में स्थित ढाक नाले में अत्यधिक मलबा आ गया था। जिसने धौली गंगा को बाधित कर उसका रुख ही बदल दिया था। इसके साथ ही अलकनंदा व विष्णु गंगा के पास आपस में मिलने वाली कर्मनाशा और कल्पगंगा ने क्षेत्र में भारी तबाही मचाई। जोशीमठ के पास हेलंग गांव बुरी तरह तबाही का शिकार हुआ। यहां तक कि इसके ऊपरी क्षेत्र के भरोसी, डूंगरी, डूंगरा, सलूर जैसे गांव ने भी भारी तबाही झेली।
करीब एक सदी बाद टूटा गौना ताल
बिरही में वर्ष 1859 में एक ताल बन गया था। जिसे गौना ताल कहा गया। यह ताल करीब 100 साल बाद 1970 की आपदा में टूट गया था। जिसने आपदा की भीषणता को और बढ़ा दिया था। गनीमत रही कि बिरही के गौना ताल और बेलकुची बांध के टूटने में 24 घंटे का अंतराल रहा। यदि दोनों ताल एक साथ टूटते तो तबाही की दर और बढ़ सकती थी। स्थिति यह थी कि मलबे के निशान प्रयागराज तक देखे गए थे। तत्कालीन आपदा में 50 से अधिक गांवों ने गहरी मार झेली थी और जोशीमठ के अपस्ट्रीम में 14 पुल तबाह हो गए थे। साथ ही पीपलकोटी से जोशीमठ की तरफ 15 किलोमीटर राजमार्ग पूरी तरह ध्वस्त हो गया था।
जोशीमठ से बड़ा बाजार बेलकुची हुआ तबाह
उस समय बेलकुची उच्च हिमालय क्षेत्र के उत्पादों के व्यापार की सबसे बड़ी मंडी होता था। यह जोशीमठ से भी काफी बड़ा बाजार था। जोशीमठ से करीब 22 किलोमीटर डाउनस्ट्रीम में स्थित यह बाजार तबाह हो गया था। यहां अलकनंदा नदी मलबे से अवरुद्ध हो गई थी और बांध बन गया था। जब यह बांध टूटा तो तबाही ने और व्यापक रूप ले लिया। कुछ इसी तरह का बांध इसी क्षेत्र के पाकी टंगड़ी में गरुड़ गंगा नदी पर भी बन गया था। साथ ही और डाउनस्ट्रीम ने कर्णप्रयाग के पास बिरही में भी बांध बन गया था।
भूधंसाव के आंतरिक कारण भी चुनौती
जोशीमठ क्षेत्र में जमीन की संवेदनशीलता के लिए बाहरी कारण के साथ बड़ा आंतरिक कारण भी जिम्मेदार है। क्योंकि, यहां से ऐतिहासिक भूकंपीय फाल्ट मेन सेंट्रल थ्रस्ट भी गुजर रहा है। जो भूगर्भ में लावे वाली साथ से कनेक्ट होकर वहां की ऊर्जा को हलचल के साथ सतह तक प्रभावित करता है। समझा का सकता है कि पर्यावरणीय कारणों से खिसकने की प्रकृति रखने वाली भूमि के लिए इस तरह की हलचल अधिक खतरनाक बना देती है।
जलवायु परिवर्तन से बदला मिजाज
उच्च हिमालय के जोशीमठ जैसे दक्षिणी भाग में भारी वर्षा का प्रभाव रहता है, जबकि उत्तरी छोर जैसे मलारी की तरफ बढ़ते हुए रेन शैडो जोन आता है। यहां बेहद शीत वाली स्थिति के कारण सीधे बर्फबारी होती है। हालांकि, जलवायु परिवर्तन के चलते पूरे क्षेत्र का स्वभाव बदल गया है। क्योंकि, जोशीमठ के ऊपरी क्षेत्र के पहाड़ बर्फबारी के चलते ठोस रहते थे और इन्हें भूस्खलन से महफूज माना जाता था। लेकिन, जलवायु परिवर्तन के चलते इन क्षेत्रों में भी बारिश रिकार्ड की जा रही है। इससे ग्लेशियर या स्नो-कवर वाले क्षेत्र पीछे खिसक रहे हैं।
बर्फ के कारण जो जमीन ठोस रहती थी, वह अब ढीली पड़ने लगी है। इसके चलते जामीन में भूस्खलन या धंसाव की स्थिति पैदा हो रही है। ग्लेशियर क्षेत्रों की एक प्रकृति होती है। इनके मलबे में या तो बड़े बोल्डर रहंगे या रेत जैसे बारीक कण। इन दोनों का स्वभाव नीचे की तरफ खिसकने का रहता है।
जोशीमठ क्षेत्र में बारीक मिट्टी है या फिर बड़े बोल्डर। अत्यधिक बारिश के चलते इनके खिसकने की गति भी बढ़ जाती है। ऐसा ही कुछ जोशीमठ में देखा जा रहा है। गंभीर यह कि यहां का रेन शैडो वाला उत्तरी भाग भी अब वर्षा के कारण निरंतर ढीला पड़ रहा है। जिससे जोशीमठ क्षेत्र में मानवजनित कारणों के अलावा पर्यावरणीय कारणों से भी दोहरा दबाव पड़ रहा है।