
बरेली का एक ऐसा क्रांतिकारी जिसके बिना 1857 की क्रांतिगाथा पूरी नहीं हो सकती। जिसने 100 से ज्यादा अंग्रेेजों को मार गिराया। हालात ये हुए कि अंग्रेज अफसर जान बचाकर नैनीताल भाग गए थे।
: मैं यूरोपियनों को मारने के लिए पैदा हुआ। मैंने 100 से ज्यादा अंग्रेज कुत्तों को मारा। मैंने ऐसा करके नेक काम किया। यह मेरी जीत है। 24 मार्च 1860 की सुबह 7:10 बजे फांसी पर लटकाए जाने से पहले यह शब्द उस जाबांज के हैं, जिसके बिना बरेली और उत्तर प्रदेश की बात तो छोड़िये भारत में 1857 की क्रांतिगाथा पूरी नहीं हो सकती।
यही वजह है कि बरेली में 1857 की क्रांति (Revolution of 1857) के नायक खान बहादुर खां (Khan Bahadur Kha) को फांसी पर लटकाए जाने के बाद उनका शव भी घरवालों को नहीं दिया गया। उनको जिला जेल के हाते में बनाई गई कब्र में ही दफना दिया गया था।
रुहेला सरदार हाफिज रहमत खां के वंशज खान बहादुर खां का जन्म 1791 में हुआ था। वह बरेली में सदर न्यायाधीश भी रहे। उनकी ख्याति और पहुंच आम जन तक ऐसी थी कि उन्होंने अंग्रेज कमिश्नर को पहले ही बता दिया था कि ईद के बाद बरेली में क्रांति होगी।
डलहौजी ने बरेली आने पर उनको बराबरी पर बैठाकर सम्मानित किया था। लेकिन अंग्रेजों की क्रूरता और अन्यायी शासन के विरुद्ध वह उनके मन में टीस रहती थी। उनकी यही क्रांतिकारी चेतना उस आंदोलन से जुड़ने के लिए उन्हें उकसा रही थी, जो देश की आजादी के पहले संग्राम के रूप में आकार लेने के लिए मुहाने पर तैयार खड़ी थी।
इसके बाद नाना साहब (Nana Saheb), अजीमुल्ला खां, मौलवी अहमदउल्ला शाह फैजाबादी, मौलाना फजले हक खैराबादी, सरफराज अली आदि लोगों के साथ मिलकर वह क्रांति का तानाबाना बुनने लगे और अब बरेली की क्रांति की बागडोर उनके हाथ में थी। खान बहादुर खां के भूड़ स्थित मकान या फिर मस्जिद नौमहला में क्रांति की योजनाएं बनती थीं।
क्रांति की सुगबुगाहट आम जनता में भी थी। 10 मई 1857 को मेरठ छावनी में हुई क्रांति का समा्चार 14 मई को बरेली तक पहुंच पाया। अगले दिन बरेली छावनी (Bareilly Cant) के कुछ सैनिकों को खान बहादुर खां , शोभाराम और तोप अधिकारी बख्त खां ने बहादुर शाह जफर की ओर से बरेली की क्रांतिकारी सेना तथा सेनापति के नाम भेजा गया गुप्त संदेश पढ़कर सुनाया गया।
संदेश के बाद खान बहादुर खां तैयारियों में लग गए। 22 मई को क्रांति के कुछ लक्षण दिखाई दिए लेकिन स्थितियां नियंत्रित कर ली गईं। इसके बाद 29 मई को बरेली में एक अफवाह फैली कि नगर के पूर्व में स्थिति नकटिया नदी के पास भारतीय सैनिकों (Indian Soldiers ) ने गंगाजल की शपथ ली है कि वे उसी दिन दो बजे सभी अंग्रेजों की हत्या कर देंगे।
कोतवाल बदरुद्दीन के ऐसा ना होने का भरोसा दिलाने पर भी अधिकारियों के बीच घबराहट थी। अंग्रेज कमिश्नर आ अलेक्जेंडर ने उसी दिन सेना के कमांडर ब्राउनली को एक समाचार भेजा कि बरेली की भारतीय सेना (Indian Army) क्रांतिकारियों से मिल चुकी है और वह भरोसेमंद नहीं रही। सैन्य अधिकारियों ने सैनिकों को समझाना शुरू किया।
खासतौर पर उन्होंने तोपखाना के सैनिकों को विश्वास में लेने का प्रयास किया। 30 मई की रात को खान बहादुर खां और शोभाराम ने एक गोपनीय पत्र बख्त खां के पास भेजा, जिसमें उन्हें बरेली में क्रांति का संचालक और संगठनकर्ता बनाए जाने का जिक्र था। अब सेना का कार्य बख्त खां के जिम्मे था। यह तय कर लिया गया कि अगले सुबह चार बजे कैप्टन ब्राउनली के बंगले को आग के हवाले कर दिया जाएगा।
31 मई को 11 बजे बरेली के तोपखाना लाइन में सूबेदार बख्त खां के नेतृत्व में विद्रोह की शुरुआत हो गई। तोप दागी गई और फिर सब ओर क्रांति का शंखनाद। बरेली सेना (Bareilly Army) की 68वीं पल्टन अंग्रेज अफसरों को मारने काटने लगी। इसमें बरेली के तत्कालीन मजिस्ट्रेट, सिविल सर्जन, जेल अधीक्षक और बरेली कालिज के प्राचार्य सी बक मार दिए गए।
अंग्रेज अधिकारी (British Officers) जान बचाकर नैनीताल की ओर भागने लगे। शाम पांच बजे तक बरेली पर क्रांतिकारियों का अधिकार हो गया था। इसके बाद बड़ी भीड़ खान बहादुर खां के घर पर जमा हुई, वहां से जुलूस निकाला गया। कोतवाली के पास उन्हें बरेली का नवाब घोषित किया गया।
करीब एक साल बाद सात मई 1858 को अंग्रेजों का क्रांतिकारियों के साथ जबरदस्त युद्ध हुआ और फिर से यूनियन जैक लहराने लगा। लेकिन खान बहादुर खां अपने साथियों के साथ निकलकर नेपाल की तराई में चले गए। वहां पर नेपाल के नरेश जंगबहादुर ने उन्हें हिरासत में लेकर अंग्रेजों के सुपुर्द कर दिया।
एक जनवरी 1860 को उन्हें बरेली लाकर छावनी में रखा गया। एक फरवरी को मुकदमा शुरू हुआ, लेकिन उनके पक्ष में कोई वकील खड़ा नहीं हुआ। एकतरफा सुनवाई से 22 फरवरी को कमिश्नर राबर्ट्स ने उन्हें क्रांति के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए फांसी सजा सुना और 24 मार्च को सुबह बरेली शहर के पास स्थित कोतवाली में उन्हें मौत की नींद सुला दिया गया।
लेेकिन उनकी क्रांति की आग अब शायद लोगों के मन में नहीं धधक रही है, क्योंकि उनको यादों के झरोखों में भी हमने स्थान देना जरूरी नहीं समझा।