
गरुड़ पुराण में ऐसा बताया गया है कि मृत्यु के पश्चात व्यक्ति की आत्मा तेरहवीं तक घर में परिवार के साथ अदृश्य रूप में रहती है। इस दौरान आत्मा बेहद दुखी और व्यथित रहती है। आत्म चाहती है कि वह दोबारा शरीर धारण कर लें।
सनातन धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, हर वर्ष अश्विन माह में कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक पितृ पक्ष मनाया जाता है। इस वर्ष 10 सितंबर से लेकर 25 सितंबर तक पितृ पक्ष है। इस दौरान पितरों के निमित्त तर्पण, श्राद्ध और पिंडदान किया जाता है। धार्मिक मान्यता है कि पितृ पक्ष में पितर भू लोक यानी पृथ्वी पर आते हैं। इसके लिए पितृ पक्ष में पितरों को आत्मिक शांति प्रदान करने के लिए श्राद्ध कर्म के साथ-साथ तर्पण किया जाता है। ऐसा करने से पितृ प्रसन्न होकर आशीर्वाद प्रदान करते हैं। कहते हैं कि पितरों के रुष्ट होने से व्यक्ति के जीवन में अस्थिरता आ जाती है। अतः पितरों को प्रसन्न करना बेहद जरूरी है। गरुड़ पुराण में पिंडदान के महत्व को विस्तार से बताया गया है। आइए, जानते हैं कि मृत्यु के बाद पिंडदान क्यों जरूरी है-
पिंडदान ?
गरुड़ पुराण में ऐसा बताया गया है कि मृत्यु के पश्चात व्यक्ति की आत्मा तेरहवीं तक घर में परिवार के साथ अदृश्य रूप में रहती है। इस दौरान आत्मा बेहद दुखी और व्यथित रहती है। आत्म चाहती है कि वह दोबारा शरीर धारण कर लें। हालांकि, यमदूत ऐसा करने नहीं देते हैं। यम पाश में फंसी आत्मा भूख और प्यास से तड़पती रहती है। इन 10 दिनों में पिंडदान करने से आत्मा तृप्त होती है।
प्राण निकलने के बाद व्यक्ति के शरीर के अंगूठे के बराबर आकार में जीवात्मा निकलती है। यमदूत जीवात्मा को पकड़कर यमलोक ले जाते हैं।
-धार्मिक मान्यता है कि व्यक्ति के मृत्यु के बाद परिजनों द्वारा पिंडदान न करने से आत्मा भटकती रहती है। इससे पितृ अप्रसन्न होते हैं। इस वजह से व्यक्ति को पितृ दोष लगता है।
-वहीं, पिंडदान करने से आत्मा को चलने की शक्ति मिलती है। इसके पश्चात, आत्मा 99 हजार योजन दूर यमलोक की दूरी तय करती है। तेरहवीं के दिन अंतिम पिंडदान होता है। इसके बाद आत्मा मोह बंधन से मुक्त हो जाती है।