लखनऊ। शिवताण्डव स्त्रोत प्रकाण्ड-पंडित, परम-शिवभक्त, प्रकृष्ट विद्वान, लंकाधिपति-रावण द्वारा विरचित स्त्रोत है। प्रकारान्तर से, शिवताण्डव स्त्रोत दशास्यचूड़ामणिचक्रचुम्बी भगवान आशुतोष-औढ़रदानी प्रलयंकर-शंकर के प्रति, लंकाधिपति-रावण के द्वारा किया गया आर्तनाद है। किवंदन्ती है कि शिवभक्त रावण ने एक बार दर्पोदीप्त होकर, कैलाश-पर्वत को ही उठा लिया था और उस पर्वत को लेकर जब वह स्वर्ण-नगरी- लंका की ओर चलने के लिये उद्यत हुआ तो भगवान शिव ने उसका दर्पदलन करने के लिये अपने पैर के अँगूठे का तनिक सा स्पर्श देकर कैलाश-पर्वत को दबा दिया था और फिर कैलाश-पर्वत न केवल प्रतनु पाद के विक्षेप से वहीं स्थापित हो गया अपितु गर्वोन्मत्त रावण का हाथ भी उसी कैलाश-पर्वत के नीचे दब गया और वह अत्यन्त-पीड़ा से व्यथित होकर शंकर-शंकर-शंकर चिल्लाते हुये प्राणरक्षा के लिए आर्तनाद करने लगा। शंकर का तात्पर्य है ’शं करोति इति शंकरः’ जिसका तात्पर्य है कि भगवान शिव मेरा कल्याण करें। इसी आर्तनाद में भगवान-शिव का स्मरण करते हुये रावण ने कुछ छंद पढे़, जो शिवताण्डव स्त्रोत के रूप में प्रख्यापित हुआ। शिवताण्डव स्त्रोत के आर्तनादपरक-गायन से भगवान शिव प्रसन्न हुये और लंका नरेश रावण की प्राण रक्षा हो सकी। भगवान शिव के बारे में भक्तों का अनुभूत सत्य है कि वह क्षणिक भावपरक पूजन से भी सहज रूप से प्रसन्न होकर भक्त का कल्याण कर देते हैं और गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी ’’आशुतोष तुम औढ़रदानी। आरति-हरन- दीनजनु जानी।।’’ का उद्घोष किया है।
रावण द्वारा शिवताण्डव स्त्रोत का पाठ करने से भगवान आशुतोष- भोलेनाथ इतने प्रसन्न हुये कि उन्होंने न केवल रावण के प्राण की रक्षा की अपितु रावण से प्रसन्न होकर उसे समृद्धि और सिद्धि से युक्त स्वर्णमयी लंका ही वरदान के रूप में दे दिया और सम्पूर्ण ज्ञान, विज्ञान, अष्टसिद्धि एवं नवनिधि प्रदान कर दी। संक्षेप में , इसके पाठ मात्र से भगवान शिव भक्तजन का कल्याण करते हैं और उनकी मनोकामना को पूर्ण करते हैं, यह निरापद एवं अनुभूत सत्य है। शिवताण्डव स्त्रोत की यदि काव्यशास्त्रीय मीमांसा की जाये तो यह प्रकट होता है कि शिवताण्डव स्त्रोत की भाषा प्रांजल, क्लिष्ट किन्तु रसपूर्ण है। शिवताण्डव स्त्रोत को पंचचामर छन्द से निबद्ध किया गया है। इसमें अनुप्रास-अलंकार की प्रीति एवं समासबहुल पदों का प्रयोग परिलक्षित है। शिवताण्डव स्त्रोत में संगीतमय-ध्वनि और नाद का अद्भुत -प्रवाह ब्रह्मानन्द की अनुभूति कराता है और ऐसा प्रतीत होता है कि प्रवर वेग से आनन्दमय एवं पवित्र भाव की सुमधुर जह्नुधारा सत्य रूप में प्रवहमान हो रही है और भगवान शिव की जटिल-जटाओं से गंगा की वारिधार प्रस्रवित होकर जगत् का कल्याण करने के लिये प्रवरवेग में उत्तालतरंगाघात कर रही है। सारतः, यह स्त्रोत “रसो वै सः” की स्थिति में भक्त को पहुँचाकर परम मंगल का विधान करने वाला एक अमोघ अस्त्र है।