बाबू साहेब ऐसे वीर बहादुर थे जिन्हें अंग्रेज कभी जिंदा नहीं पकड़ सके..

शासक भोज के वंश में साल 13 नवंबर 1777 में जन्मे वीर कुंवर सिंह अपनी उम्र के 80वें साल में चल रहे थे। वे बिहार के शाहाबाद यानी मौजूदा भोजपुर जिले की जागीरों के मालिक थे। वह ऐसे वीर बहादुर थे जिन्हें अंग्रेज कभी जिंदा नहीं पकड़ सके।

 ‘बाबू कुंवर सिंह को जो भी जीवित अवस्था में पकड़कर किसी ब्रिटिश चौकी अथवा कैंप में सुपुर्द करेगा, उसे 25 हजार रुपये इनाम का दिया जाएगा।’

12 अप्रैल, 1858 को गवर्नर जनरल भारत सरकार के सचिव के हस्ताक्षर से यह घोषणा बिहार के लाल, पहले स्वतंत्रता संग्राम के हीरो और एक 80 साल के रणबांकुरा बाबू वीर कुंवर सिंह को पकड़ने के लिए की गई थी।PauseUnmute

बाबू वीर कुंवर सिंह ने अपनी युद्ध नीति से अंग्रेजों को जमकर छकाया, खूब सताया और सात बार भयानक नुकसान तक पहुंचाया, लेकिन जीते जी अंग्रेजों के हाथ नहीं आए। उनकी वीरगाथा आज भी लोगों को प्रेरित करती है।

बात उन दिनों की है, जब बंगाल के बैरकपुर छावनी में मंगल पांडे ने कारतूस का इस्तेमाल करने से मना कर दिया था। 29 मार्च 1857 को गुलामी मानने से इनकार कर अंग्रेजों पर हमला बोल दिया था।

नतीजा मंगल पांडे की गिरफ्तारी हुई, मुकदमा चला और तय तिथि से 10 दिन पहले चुपचाप फांसी पर लटका दिया गया। मंगल पांडे की बहादुरी ने देश को अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा कर दिया। अलग-अलग छावनियों में सैनिकों ने विद्रोह करना शुरू कर दिया।

विद्रोही सैनिकों के बने सेनापति

शासक भोज के वंश में साल 13 नवंबर, 1777 में जन्मे वीर कुंवर सिंह अपनी उम्र के 80वें साल में चल रहे थे। वे बिहार के शाहाबाद यानी मौजूदा भोजपुर जिले की जागीरों के मालिक थे।

27 जुलाई, 1857 को दानापुर छावनी से विद्रोह कर आए सैनिकों, भोजपुरी जवानों और अन्य आजादी के मतवालों ने बाबू कुंवर सिंह का नेतृत्व स्वीकार किया।

इसके बाद कुंवर सिंह के नेतृत्व में भारतीय सैनिकों ने ब्वायल कोठी/आरा हाउस में छिपे अंग्रेजों को पराजित कर आरा नगर पर कब्जा कर लिया। इस तरह जेल तोड़ कर कैदियों की मुक्ति और खजाने पर कब्जा करने से कुंवर सिंह का अभियान शुरू हुआ।

आरा में अंग्रेजी कर्नल डनबर के मारे जाने की सूचना मिलने पर मेजर विसेंट आयर, जो स्टीमर से प्रयागराज जा रहा था, बक्सर से वापस आरा लौटा और 2 अगस्त को चर्चित बीबीगंज का युद्ध हुआ।

यहां अंग्रेजी फौज ने जमकर दहशत बरपाई। घायलों को फांसी पर लटका दिया। महलों और दुर्गों को खंडहर बना दिया। कुंवर सिंह पराजित हुए, लेकिन जज्‍बा और बुलंद हो गया। आयर ने 12 अगस्त को जगदीशपुर पर आक्रमण किया और कब्‍जा कर लिया।

आजमगढ़ को कराया ब्रिटिश शासन से मुक्‍त

‘1857: बिहार में महायुद्ध’ नाम से लिखी गई एक किताब के मुताबिक, 14 अगस्त 1857 को जगदीशपुर हाथ से निकल जाने के बाद कुंवर सिंह ने 1200 सैनिकों के साथ एक महाअभियान चलाया।

रोहतास, रीवा, बांदा, ग्वालियर, कानपुर, लखनऊ होते हुए 12 फरवरी 1858 को अयोध्या और 18 मार्च 1858 को आजमगढ़ से 25 मील दूर अतरौलिया नामक स्थान पर आकर डेरा डाला।

22 मार्च को कर्नल मिलमैन को हराकर आजमगढ़ पर कब्‍जा कर लिया था। मिलमैन की मदद के लिए आए कर्नल डेम्स को भी 28 मार्च को हार का सामना करना पड़ा।

उस वक्‍त उनके काफिले में 1,000 सैनिक और 2,500 समर्थक थे। कुंवर सिंह का आजमगढ़ पर कब्‍जा करने का उद्देश्‍य प्रयागराज और बनारस में अंग्रेजों को पराजित करते हुए अपने गढ़ जगदीशपुर को ब्रिटिश शासन से मुक्‍त कराना था।

गोरिल्ला नीति के चलते बुलाते थे महाराणा प्रताप

बाबू कुंवर सिंह ने उसी युद्ध नीति को अपनाया था, जिससे महाराणा प्रताप ने मुगलों के खिलाफ युद्ध लड़ा था। यानी कि वे छापामार युद्ध नीति से अंग्रेजों को धूल चटा रहे थे।

जिस नीति से एक बार अंग्रेजों को हराते दूसरी बार वे नई नीति इस्तेमाल करते, जिस कारण अंग्रेज उनका मुकाबला नहीं कर पा रहे थे। मिलमैन और डेम्स की आर्मी कुंवर सिंह के मुट्ठी भर सैनिकों से हार गई।

इस पराजय से बेचैन लार्ड कैनिंग ने मार्ककेर को युद्ध के लिए भेजा। 500 सैनिकों और आठ तोपों के साथ आए मार्ककेकर के सहयोग के लिए सेनापति कैंपबेल ने एडवर्ड लगर्ड को भी आजमगढ़ पहुंचने का आदेश दिया।

तमसा नदी के तट पर हुए इस युद्ध में मार्ककेकर और लगर्ड को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा। हालांकि, इसमें कुंवर सिंह की सेना को भी भारी नुकसान हुआ था। कई महीनों तक अंग्रेजी सेना बाबू कुंवर सिंह को बुरी तरह खोजती रही, लेकिन वे उनके हाथ नहीं लगे।

बाबू ने काटकर फेंक दिया था अपना हाथ…

21 अप्रैल, 1858 की बात है। बाबू कुंवर सिंह उत्तर प्रदेश यानी तब के संयुक्‍त प्रदेश से बिहार की ओर लौटने लगे। वे बलिया के पास अपने सैनिकों के साथ कश्ती से गंगा नदी पार कर रहे थे, तभी अंग्रेजी सेना ने उन पर गोलीबारी शुरू कर दी।

‘भारत में अंग्रेजी राज’ किताब के मुताबिक, गंगा नदी पार करते हुए किसी अंग्रेज सैनिक की गोली बाबू कुंवर सिंह के दाएं हाथ में लग गई। उस वक्त उन्होंने बाएं हाथ से तलवार खींची और घायल दाहिने हाथ को काटकर अलग कर दिया। हाथ को गंगा में प्रवाहित कर युद्ध लड़ते रहे। यह देखकर अंग्रेज सैनिक खौफ में आ गए थे। 22 अप्रैल को अपने दो हजार साथियों के साथ जगदीशपुर में पहुंचे।

जब अंग्रेजी सेना को कुंवर सिंह के जगदीशपुर पहुंचने की सूचना मिली तो 23 अप्रैल को कैप्टन लीग्रैंड ने बेहद आधुनिक राइफलों और तोपों से हमला बोल दिया, लेकिन वह भी युद्ध में मारा गया। जगदीशपुर के लोग खुश थे।

इसी बीच, गोली लगने और फिर हाथ को तलवार से काटने के चलते बाबू कुंवर सिंह के शरीर में जहर फैल गया और वे नहीं रहे। हालांकि, बाबू कुंवर सिंह के निधन के बाद उनके छोटे भाई अमर सिंह ने जगदीशपुर की स्वतंत्रता की रक्षा की। 

अंग्रेजों ने भी की तारीफ

विनायक दामोदर सावरकर  ने अपने अमर ग्रंथ ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ में जिन सात योद्धाओं के नाम से अलग खंड लिखा था, उसमें से एक एक खंड बाबू कुंवर सिंह और उनके छोटे भाई अमर सिंह पर था।

‘टू मंथ्स इन आरा’ नाम से आई किताब के लेखक डॉ. जान जेम्स हाल ने आरा हाउस का आंखों देखा दृश्य लिखा, जिसमें उन्होंने स्वीकार किया कि कुंवर सिंह ने ‘व्यर्थ की हत्या नहीं करवाई। कोठी के बाहर जो ईसाई थे, वे सब सुरक्षित थे। 

आजाद भारत में मिला सम्‍मान

  • 23 अप्रैल 1966 को भारत सरकार ने बाबू वीर कुंवर सिंह के सम्‍मान में एक स्‍मारक टिकट जारी की।
  • साल 1992 में बिहार सरकार ने वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा की स्थापना की।
  • साल 2017 में वीर कुंवर सिंह सेतु बनाया, जिसे आरा-छपरा ब्रिज के नाम से भी जाना जाता है।
  • साल 2018 में बिहार सरकार ने उनकी प्रतिमा को हार्डिंग पार्क में लगवाया और पार्क का आधिकारिक नाम ‘वीर कुंवर सिंह आजादी पार्क’ रखा।

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